हज एक अहम इबादत

दीनी मदरसों का तअ़लीमी साल
May 20, 2023
हरमैन शरीफ़ैन
July 6, 2023

ईमान लाने के बाद इन्सान इस्लाम धर्म में दाख़िल हो जाता है और क्रमानुसार इस्लामी इबादात उस पर लागू हो जाती हैं। चैबीस घण्टों में पाँच नमाज़ें निर्धारित समय पर पढ़ना फर्ज है। नमाज़ हर आक़िल बालिग़ मर्द औरत पर चाहे वह आलिम हो या जाहिल, ग़रीब हो या अमीर, शहरी हो या देहाती, सब पर अनिवार्य है, र्कुआन में नमाज़ के साथ ज़कात की अदाइगी का हुक्म दिया गया है लेकिन ज़कात की अदाईगी के लिए साहिबे निसाब होना ज़रूरी है। इसी प्रकार रमज़ान के महीने में रोज़ा रखना फर्ज है, हज मालदार मुसलमानों पर ज़िन्दगी में केवल एक बार फर्ज़ है, इस समय आपके सामने हज के विषय पर विस्तार से बात करनी है।
अल्लाह तआला फरमाते हैं ‘‘लोगों पर अल्लाह का यह हक़ है कि जो उसके घर तक पहुंचने की इस्तिताअत सामथ्र्य रखता हो वह उसका हज करे।’’
(सूरः आले इमरान-97)
हज क्या है? ख़ान-ए- काबा की ओर अल्लाह के हुक्म के अनुसार आना, तवाफ़ और सई करना और अरफ़ात में ठहरने और रसूले करीम सल्ल0 के सिखाए हुए तरीक़े के अनुसार अरकान अदा करने को हज कहते हैं।
तमाम आमाल का दारोमदार नीयत पर है, नीयत यह हो कि अल्लाह को राज़ी व ख़ुश करना है, नाम व नुमूद दिखावा बिल्कुल न हो, हज जैसा अमल जिसे ज़िन्दगी में एक बार करना है, उसमें बहुत ज़्यादा सावधानी की ज़रूरत है, शैतान, हम इन्सानों का बड़ा मक्कार और अय्यार दुश्मन है। वह हमारे हर नेक अमल और हर इबादत को ख़राब व बरबाद करने की ऐसी ऐसी ख़ुफ़या और बारीक कोशिशें करता रहता है कि जिन का हमें पता भी नहीं चलता, हज चूंकि बहुत ही आला दर्जे का नेक अमल है और इससे बन्दे के दीन में और उसके दरजों में बहुत तरक़्िक़याँ होती हैं और अगर वह ठीक तरह से अदा हो जाए तो उससे सारे गुनाह माफ़ हो जाते हैं, इसलिए शैतान उसे ख़राब और बरबाद करने की बड़ी गहरी कोशिशें करता है- इस लिससिले में उसकी सबसे पहली कोशिश यह होती है कि किसी तरह बन्दे की नीयत ख़राब करदे, हाजी साहिबान को चाहिए कि शैतान की इस शरारत से सावधान रहें और अपनी नीयत और दिल की बराबर देख भाल करते रहें, शैतान आपके दिल में इस क़िस्म के ख़्यालात डालने की कोशिश करेगा कि हज करने से लोग हमें बहुत अच्छा और नेक समझने लगेंगे, हमारी इज़्ज़त ज़्यादा करने लगेंगे, हमारी बात का एतिबार बढ़ जाएगा कभी कभी वह यह वसवसा डालेगा कि चलो मक्का शरीफ़ देखेंगे, मदीना शरीफ़ देखेंगे आदि, आप इन में से किसी चीज़ को भी अपने इस मुबारक सफ़र का उद्देश्य न समझें और इन सब बातों को दिल से निकाल कर बस अल्लाह के आदेश का पालन करें, उसके फ़र्ज़ की अदाएगी और उसकी रज़ामन्दी और आखिरत के सवाब को वास्तविक उद्देश्य और लक्ष्य बनायें और रवाना होने से पहले और रवानगी के बाद रास्ते में अपनी नीयत और अपने दिल की शैतानी वस्वसों से बराबर हिफ़ाज़त करते रहें, अगर ख़ुदा न ख़्वास्ता शैतान नीयत ख़राब करने में कामयाब हो गया तो सारी मेहनत और सारा अमल बरबाद हो जाएगा, हर अमल के क़ुबूल होने की पहली शर्त नीयत की दुरुस्ती है।
तात्पर्य यह है कि पूरी कोशिश करें कि इस यात्रा से आपका उद्देश्य यह हो कि अल्लाह का आज्ञा पालन करके उसकी प्रसन्नता, उसके अज़ाब से नजात और वह सवाब हासिल कर सकें जिसका वादा हज करने वालों के लिए कुरआन शरीफ़ और हदीस शरीफ़ में किया गया है- नीयत की दुरुस्ती के लिए और शैतान के वसवसों से दिल की हिफ़ाज़त के लिए आप अल्लाह तआला से दुआ भी करते रहें अगर अल्लाह का फ़ज़्ल शामिल हाल हो तो शैतान कुछ नहीं बिगाड़ सकता। चूंकि हर अमल की कामयाबी और नाकामयाबी अच्छी बुरी नीयत पर निर्भर है इसलिए इतनी विस्तार पूर्वक बात कही गई, हज के मुबारक सफ़र पर जाने वाले हर मुसलमान भाई को मेरा दूसरा ख़ास मशवरा यह है कि हज के लिए रवाना होने से पहले अगर ज़्यादा नहीं तो कम से कम हफ़ते दो हफ़ते किसी ऐसे दीनी माहौल में अवश्य गुज़ारें जहां रहने से अल्लाह से सम्बन्ध और उसकी मुहब्बत बढ़े, उसकी याद का ज़ौक़ और उसकी इबादत का शौक़ तरक्क़ी करे और दुनिया की फ़िकरों में कमी और आख़िरत की फ़िक्र में ज़्यादती हो, यह चीज़ें अल्लाह के सच्चे और अच्छे बन्दों के साथ रहने से पैदा हो जाती हैं- और इसकी एक आसान और अति लाभदायक सूरत मेरे इल्म और अनुभव के अनुसार यह है कि एक दो हफ़ते किसी ऐसी तबलीग़ी जमात के साथ गुज़ारें जो ख़ास तौर से हाजियों में काम करने के लिए निकली हुई हो और जिसके तालीमी प्रोग्राम में हज के आदाब और उसका तरीक़ा सीखने सिखाने का काम विशेष प्रबंध से हो- मेरी गुज़ारिश सिर्फ़ यह है कि बैतुल्लाह पर हाज़िरी से पहले अपने दिल को अल्लाह तआला की मुहब्बत और याद से आबाद करने के लिए कुछ न कुछ उपाय आप ज़रूर करें ताकि हज का भलीभांति फ़ाइदा उठा सकें और ख़ाली वापस न आएं।
हज़ के फ़राएज़ः-
1. एहराम (दो ग़ैर सिली चादरें) पहन कर हज की नीयत दिल से करना और तलबिया (अल्लाहुम्मा लब्बैक……………..) कहना।
2. वकू़फे़ अरफ़ात यानी मैदाने अरफ़ात में ठहरना, चाहे वह एक लम्हे ही के लिए क्यों न हो, नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया ‘‘हज अरफ़ात में ठहरने का नाम है’’ (जामे तिर्मिजी़ हदीस-880)
3. तवाफ़े ज़ियारत जो दसवीं ज़िलहिज्जा की सुबह से ले कर बारहवीं ज़िलहिज्जा के मग़रिब तक किया जा सकता है।
हज के वाजिबातः-
1. अरफ़ात में सूरज डूबने तक ठहरना ।
2. वकूफ मुज़दलफ़ा।
3. बड़े वाले शैतान की रमी करना (कंकरी मारना)।
4. दसवीं ज़िलहिज्ज़ा की रमी, कुर्बानी और हलक़ (सर मुंडाना) क्रमानुसार करना।
5. सफ़ा मरवा के बीच सई करना (दौड़ना)
6. ग्यारह व बारह ज़िलहिज्जा की रमी।
7. तवाफ़े विदाअ़।
8. दस, ग्यारह, बारह तारीख़ की रात मिना में गुज़ारना।
उमरा के फ़राएज़ः-
1. मीक़ात से एहराम बांधना, नीयत करना और तलबिया पढ़ना।
2. खान-ए-काबा का तवाफ़ करना और तवाफ़ के बाद मुकामे इब्राहीम पर दो रकअ़त नमाज़ पढ़ना।
उमरा के वाजिबात:-
1. सफ़ा और मरवा के बीच सई करना (तवाफ़ के बाद) सई सफ़ा से शुरु करना और मरवा पर ख़त्म करना,
2. सर के बाल मुंडवाना या कतरवाना।
एहराम की हक़ीक़तः-
एहराम के माने हैं बेहुरमती न करना या अपने ऊपर किसी चीज़ को हराम कर लेना, एहराम नाम है हज या उमरा या दोनों की नीयत से तलबिया पढ़ने का, दो चादरों को एहराम नहीं कहा जाता है बल्कि यह एहराम के कपड़े होते हैं, बग़ैर सिले हुए, क्योंकि हज व उमरा करने वाले पर नीयत और तलबिया की वजह से सिले हुए कपड़े पहनना मना है, इसलिए इन दो चादरों को पहना जाता है।
तल्बियाः-
लब्बैक अल्लाहुम्मा लब्बैक, लब्बैक ला शरीक लका लब्बैक, इन्नल हम्दा, वन नेमता लका वल्मुक ला शरीका लक (मैं हाज़िर हूँ ऐ अल्लाह मैं हाज़िर हूँ, मैं हाज़िर हूँ तेरा कोई शरीक नहीं, मैं हाज़िर हूँ, बेशक तमाम तारीफ़ें और नेमतें तेरी ही हैं और बादशाहत भी, तेरा कोई शरीक नहीं।