रोज़ा एक इस्लामी इबादत

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इस्लाम, अल्लाह का पसंदीदा दीन है जिसकी दावत हज़रत आदम अलैहिस्सलाम से ले कर अन्तिम नबी हज़रत मुहममद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तक एक लाख चैबीस हज़ार नबियों ने दी, इस्लाम की सत्यता और शुद्धता के लिए इससे बढ़ कर मज़बूत गवाही क्या हो सकती है। अल्लाह के रसूल सल्ल0 ने फ़रमाया ‘‘इस्लाम की बुनियाद पाँच चीज़ों पर है सर्व प्रथम कलम-ए-शहादत का इक़रार यानी अल्लाह को एक जानना और एक मानना और हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को अल्लाह का बन्दा और रसूल स्वीकार करना, इसके बाद नमाज़ क़़ायम करना, ज़कात देना और रमज़ान के महीने में रोज़े रखना, और ज़िन्दगी में एक बार हज करना’’।
इस्लाम एक तम्बू के समान है जिसका केन्द्रीय स्तम्भ कलिम-ए-शहादत है बाक़ी चारों कोनों पर एक एक स्तम्भ नमाज़, रोज़ा, ज़कात, हज का है। प्रत्येक कोना तम्बू के केन्द्रीय स्तम्भ से संबंधित है, हर स्तम्भ अपने स्थान पर आवश्यक है। इसके बिना तम्बू पूर्ण रूप से खड़ा नहीं हो सकता है। इस उदाहरण से आप भली भांति समझ गए होंगे कि इस्लामी इबादात का पूर्ण रूप क्या है? और उसकी वास्तविकता किन कामों पर निर्भर है। इसके बाद हम आपसे विस्तार पूर्वक ‘‘रोज़े’ के विषय पर बात करेंगे, हर ईमान वाले पर अपने निश्चित समय पर 24 घण्टे में पाँच बार नमाज़ पढ़ना अनिवार्य है इसी प्रकार ज़कात कुछ शर्तों के साथ साल में एक बार देना अनिवार्य है। इस्लामी इबादात का अन्तिम रुक़्न मालदार मुसलमानों पर ज़िन्दगी में केवल एक बार हज बैतुल्लाह करना अनिवार्य है परन्तु ‘‘रोज़ा’’ हर मुसलमान के लिए साल में एक बार रमज़ान के महीने में ज़रूरी है। रोज़ा क्या है? फ़ज्र के वक़्त से सूरज के डूबने तक अपने को खाने पीने और स्त्री संभोग से अपने को सुरक्षित रखना, इसके अलावा छोटे बड़े गुनाहों से अपने को बचाना, गोया शरीर का एक एक अंग रोज़े का पाबन्द है। जो व्यक्ति बिना किसी मजबूरी और बीमारी के रमज़ान का एक रोज़ा भी छोड़ दे वह अगर इसके बदले सारी उम्र भी रोज़ा रखे तो भी उसका पूरा हक़ अदा न हो सकेगा।
रोज़े में चूंकि इबादत की नियत से खाने पीने और कामुकता से अपने मन को रोका जाता है और अल्लाह के वास्ते अपनी इच्छाओं और लज़्ज़तों को क़ुरबान किया जाता है इसलिए अल्लाह ने उसका सवाब भी बहुत ज़ियादा और सबसे निराला रखा है। एक हदीस में है किः-
‘‘बन्दों के सारे अच्छे अ़ामाल के बदले का एक क़ानून बना हुआ है और हर अमल का सवाब उसी हिसाब से दिया जाता है परन्तु रोज़ा इस क़ानून से अलग है, उसके बारे में अल्लाह तआला का इरशाद है कि बन्दा रोज़े में मेरे लिए खाना पीना और अपनी कामुकता को क़ुरबान करता है, इसलिए रोज़े का बदला बन्दे को मैं ख़ुद दूँगा।
एक दूसरी हदीस में है किः-
‘‘जो व्यक्ति पूरे ईमान और यक़ीन के साथ अल्लाह तआला की रज़ामन्दी हासिल करने के लिए और उससे सवाब लेने के लिए रमज़ान के रोज़े रखे तो उसके पहले सब गुनाह माॅफ़ कर दिये जाएंगे’’।
एक दूसरी हदीस में है किः-
‘‘रोज़े के लिए फ़रहत (आनन्द) के दो ख़ास मौक़े हैं, एक ख़ास फ़रहत रोज़ा खोलने के समय इस दुनिया ही में मिलती है और दूसरी फ़रहत आख़िरत में अल्लाह के सामने हाज़िर होने और अल्लाह के दरबार में स्थान पाने के समय हासिल होगी।’’
एक और हदीस में आया हैः-
‘‘रोज़ा दोज़ख़ की आग से बचाने वाली ढाल है और एक मज़बूत क़िला है जो दोज़ख़ के अज़ाब से रोज़ेदार को सुरक्षित रखेगा’’। एक और हदीस में आया है- ‘‘रोज़ेदार के लिए ख़ुद रोज़ा अल्लाह तआला से सिफ़ारिश करेगा कि मेरी वजह से इस बन्दे ने दिन को खाना पानी और मन की इच्छा को पूरा करना छोड़ दिया था इसलिए माॅफ़ कर दिया जाये और इसको पूरा बदला दिया जाये तो अल्लाह तआला रोज़े की यह सिफ़ारिश कबूल कर लेगा।’’
इन हदीसों में रोज़े की जो फजीलतें (श्रेष्ठता) बताई गई हैं, इनके अलावा एक बड़ी विशेषता यह है कि रोज़ा इन्सानों को दूसरे जानवरों से अलग करता है, जब दिल चाहा खा लिया जब मन में आया पी लिया, जब कामुकता उठी अपने जोड़े से अपनी इच्छा पूरी कर ली, यह विशेषता जानवारों की है, और न कभी खाना न कभी पीना, न कभी अपने जोड़े से लज़्ज़त हासिल करना, यह शान फ़रिश्तों की है। रोज़ा रख कर आदमी दूसरे हैवानों (जीव धारियों) से अलग और बड़ा होता है और फरिश्तों से उसको एक प्रकार की मुनास्बत (समता) हो जाती है।
रोज़े का एक ख़ास फ़ायदा यह है कि इससे आदमी में तक़वा (अल्लाह का डर) और परहेज़गारी और सदाचारी की सिफ़त पैदा हो जाती है और अपने मन की इच्छाओं को काबू में रखने की ताक़त आती है और अल्लाह के हुक्म के सामने मन की इच्छा और चाहत को दबाने की आदत पड़ती है और रूह (आत्मा) की तरक़्क़ी और उसका सुधार होता है, परन्तु यह सब बातें उसी समय हासिल हो सकती हैं जब रोज़ा रखने वाला ख़ुद भी इनके हासिल करने का इरादा रखे और रोज़े में उन सभी बातों का ध्यान रहे जो रसूलुल्लाह सल्ल0 ने बताई हैं यानी खाने पीने के अलावा सब छोटे बड़े गुनाहों से बचे, न झूठ बोले न ग़ीबत करे न किसी से लड़े। ख़ुलासा यह है कि रोज़े की हालत में सभी खुले और छिपे गुनाहों से पूरी तरह बचे जैसा कि हदीसों में इस पर ज़ोर दिया गया है।
एक हदीस में है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः-
‘‘जब तुममें से किसी के रोज़े का दिन हो तो चाहिए कि कोई गन्दी और बुरी बात उसकी ज़बान से न निकले और फुजूल बात भी न करे और अगर कोई आदमी उससे झगड़ा करे उसको गाली दे तो उससे केवल इतना कह दे कि मैं रोज़े से हूँ (इसलिए तुम्हारी गालियों के जबाब में मैं गाली नहीं दे सकता)।’’
एक और हदीस में हैः- हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः- ‘‘जो आदमी रोज़े में भी बुरी बातों का कहना और उनका करना न छोड़े तो अल्लाह को उसका खाना पीना छोड़ने की कोई ज़रूरत और कोई परवाह नहीं।’’
एक और हदीस में है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः-
‘‘कितने ही ऐसे रोज़ेदार होते हैं जो रोज़े में बुरी बातों और बुरे कामों से नहीं बचते और उसकी वजह से उनके रोज़े का हासिल भूक-प्यास के सिवा कुछ भी नहीं होता।’’
उन विशेषताओं के अनुकूल जिनको ऊपर बयान किया गया यदि कोई इन्सान पूरे महीने रोज़ा रखता है तो वह गुनाहों से पाक साफ़ एक निखरा हुआ इन्सान बन जाएगा और इसका फ़ायदा पूरे साल वह महसूस करेगा, अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के फ़रमान के मुताबिक़ वह इन्सान बड़ा बदक़िस्मत और बदनसीब है जिसने रमज़ान का महीना पाया और अपनी बख़शिश और मग़फ़िरत का सामान न कर सका।