मुह़र्रम का मुबारक महीना

हिज्री कलेण्डर का बारहवां महीना ‘‘जिलहि़ज्जः’’
July 22, 2021
हज़रत मुहम्मद सल्ल0 की प्रमुख विशेषता
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मुहर्रम हिज्री कलेण्डर का पहला महीना है यानी इस्लामी कलेण्डर का पहला महीना है, अल्लाह तआला यह महीना सारे इंसानों को मुबारक करे और इस महीने में अल्लाह तआला ने जिस तरह अपने बहुत से खास बन्दों को इंअ़ामात से नवाज़ा था अब दुन्या के सारे बन्दों को कोरोना के अ़ज़ाब से नजात देने का इंअ़ाम अता करे, आमीन।
मुहर्रम के शुरु के दस दिनों में रोजे रखने का बड़ा सवाब है मुहर्रम की दस्वीं तारीख़ को यौमे आशूरा कहते हैं, अगर इन दिनों में रोज़ा न रख सके तो आशूरा का रोज़ा ज़रूर रखे कि सुन्नत है अलबत्ता उसके साथ नौ या ग्यारह का रोज़ा मिलाना मुस्तहब है, अल्लाह ने आशूरा के दिन अपने खास बन्दों पर बड़े बड़े इंअ़ामात किये हैं, सबसे क़रीबी इंअ़ाम मूसा अलैहिस्सलाम पर हुआ जब वह फिरऔन के जुल्म व सितम से बचाने के लिए रातों रात बनी इस्राइ्रल को ले कर मिस्र से निकलने के लिए चल पड़े लेकिन फिरऔन को ख़बर हो गयी वह भी अपनी फौज ले कर बनी इस्राईल को घेर लेने के इरादे से चल पड़ा, हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम समन्दर के किनारे पहुंच गये, वह समन्दर पार करने की कोई तदबीर करते लेकिन बनी इस्राईल को मालूम हुआ कि फिरऔन अपनी फौज के साथ हम तक पहुंचने वाला है तो वह सब बहुत घबरा गये और मूसा अलैहिस्सलाम से कहा अब तो हम हलाक हुए, मूसा अलैहिस्सलाम ने कहा नहीं, अल्लाह मेरे साथ है और अल्लाह के हुक्म से अपना अ़सा (लाठी) समुन्दर में मारा तो समुन्दर में रास्ता हो गया, दोनों जानिब समुन्दर पहाड़ की तरह रुक गया हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम बनीइस्राईल को ले कर उस रास्ते से समुन्दर पार कर गये, अब फिरऔन भी अपनी फौज के साथ समुन्दर के किनारे आ पहुँचा और रास्ता देख कर अपनी फौज के साथ उसी रास्ते पर चल पड़ा जब बीच में पहुंचा तो समुन्दर का पानी जो रुका हुआ था वह मिल गया और फिरऔन अपनी फौज के साथ डूब कर मर गया। यह मुहर्रम की दस तारीख़ थी, उसके बाद हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम पर जो इंअ़ाम हुआ उनकी उम्मत यहूदी दस मुहर्रम को शुक्राने के तौर पर रोज़ा रखने लगे, हमारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया, हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम से हमारा तअ़ल्लुक़ यहूदियों से ज़ियादा ही है और दस मुहर्रम को खुद रोज़ा रखा और उम्मत को रोज़ा रखने की तरग़ीब दी।
लेकिन इस मुबारक दिन में एक बहुत ही ग़मनाक वाक़िया हुआ यानी दस मुहर्रम ही को नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के लाडले नवासे हज़रत हुसैन रज़ि0 को नबी की उम्मत के कुछ ज़ालिम लोगों ने हज़रत हुसैन रज़ि0 को जुलमन शहीद कर दिया, इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊ़न।
जी चाहता है इस वाक़िये को संक्षेप में पाठकों के सामने प्रस्तुत कर दिया जाये।
हज़रत मुअ़ाविया रज़ि0 ने आख़िरी उम्र में अपने इज्तिहाद से अपने बाद अपने बेटे यज़ीद को वली अहद नामज़द कर दिया, मगर मौजूद सहाबा को यह फैसला पसन्द न आया, हज़रत अब्दुर्रहमान बिन अबी बक्र, हज़रत हुसैन बिन अली, हज़रत अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर, हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास, हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ि0 ने खुल कर नकीर की, लेकिन हज़रत मुअ़ाविया अपने फैसले पर जमे रहे, 22 रजब सन् 59 हिज्री को हज़रत मुअ़ाविया का इंतिक़ाल हो गया और यज़ीद तख़्त पर बैठ गया, उस वक़्त तक़रीबन साठ सहाबा मौजूद थे, चाहे उनको यज़ीद का तख़्त पर बैठना अच्छा न लगा हो मगर सब ने बैअ़त कर ली, हज़रत अब्दुर्रहमान का इन्तेक़ाल हो चुका था, हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर और हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास की राय बदल चुकी थी, हज़रत अब्दुल्लाह बिन जुबैर और हज़रत हुसैन बिन अली मदीने में थे हज़रत हुसैन रज़ि0 की मदीने में खासी जायदाद थी वह मालदार लोगों में से थे, मदीने के गवर्नर ने उनको बुलाया और यजीद के लिए बैअ़त माँगी, आप रज़ि0 ने फरमाया मैं तन्हा बैअ़त नहीं करूँगा किसी मौक़े से मज्मे के सामने मुझ से बैअ़त तलब करना, यह कह कर गवर्नर के पास से चले आये, यह रात का वक़्त था और रातों रात अपने अहलो अयाल को ले कर मदीने से मक्के को रवाना हो गये, अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर से भी बैअ़त का मुतालबा हुआ वह भी बहाना करके रातों रात मक्का मुकर्रमा को रवाना हो गये।
दोनों बुज़ुर्ग अपने अपने रास्तों से ख़ैर व आफियत के साथ मक्का मुकर्रमा पहुँच कर वहां क़ियाम किया, ज़ाहिर है किराये के मकानात लिए होंगे, यज़ीद की तरफ़ से मुक़र्रर मक्के के गवर्नर ने दोनों बुजुर्गों से बैअ़त का मुतालबा नहीं किया, थोड़े दिनों बाद अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर ने अपनी इमारत की कोशिश शुरु कर दी, वह अपनी कोशिश में कामयाब चल रहे थे, मगर हज़रत हुसैन रज़ि0 खामोश थे।
कूफा जो हज़रत हुसैन के वालिद हज़रत अली रज़ि0 और बड़े भाई हज़रत हसन रज़ि0 का दारुल ख़िलाफत रह चुका था अगरचे हज़रत अली रज़ि0 कूफियों से हमेशा नालां रहे, और कूफियों ने हज़रत हसन रज़ि0 को तकलीफ़ें पहुँचाईं थी मगर अब कूफा के सरदारों के दिलों में हज़रत हुसैन रज़ि0 की महब्बत उभर आई, कूफा के सरदारों ने अलग अलग हज़रत हुसैन को खुतूत क़ासिद के ज़रिये पहुँचाये, और उसके बाद भी ख़ुतूत भेजने का सिलसिला जारी रहा, इन सैकड़ों खुतूत को पढ़ कर हज़रत हुसैन रज़ि0 का दिल कूफे की तरफ़ माइल हो गया लेकिन तफ़्तीशे हाल के लिए हज़रत हुसैन ने अपने चचा ज़ाद भाई मुस्लिम बिन अक़ील को कूफा भेज दिया।
मुस्लिम बिन अक़ील जब कूफा पहुंचे तो उनका बड़ा इस्तिक़बाल हुआ, एक रिवायत में है चालीस हज़ार और दूसरी रिवायत में अट्ठारह हज़ार कूफिरयों ने हज़रत हुसैन रज़ि0 के लिए हज़रत मुस्लिम के हाथ पर बैअ़त की, हज़रत मुस्लिम ने हज़रत हुसैन रज़ि0 को ख़त लिखा यहां के हालात आपके हक़ में हैं आप तशरीफ लायें, ख़त पाते ही हज़रत हुसैन रज़ि0 ने अपने अहलो अयाल के साथ कूफा जाने का ऐलान कर दिया, मक्के में जब यह खबर फैली तो मक्के के सभी बुज़ुर्गों ने हज़रत हुसैन रज़ि0 को कूफा जाने से रोका, उन बुज़ुर्गों में घर के बुज़ुर्ग अब्दुल्लाह बिन अब्बास थे उन्होंने कहा, अगर नहीं मानते तो औरतों और बच्चों को अभी साथ न ले जाओ, मगर हज़रत हुसैन रज़ि0 अहलो अयाल के साथ रवाना हो गये।
यज़ीद को इस की ख़बर हुई तो उसने कूफा के नर्मदिल गवर्नर को बदल कर सख़्तदिल गवर्नर उबैदुल्लाह बिन ज़ियाद को मुकर्रर किया उबैदुल्लाह बिन ज़ियाद ने कूफा पहँुच कर दौलत दे कर या ख़ौफ दिला कर कूफा के सरदारों को अपना हमनवां बना लिया, और हज़रत मुस्लिम को गिरिफ्तार कर लिया, हज़रत मुस्लिम ने हज़रत हुसैन रज़ि0 को ख़त भेजा कि यहां के हालात बदल गये, यहां न आइये, हज़रत मुस्लिम को शहीद कर दिया गया, क़ासिद ख़त ले कर हज़रत हुसैन के पास पहुंच गया वह रास्ते में थे, क़ासिद ने कहा मुस्लिम शहीद कर दिये गये, हज़रत हुसैन को बहुत दुख हुआ और उन्होंने वापसी का इरादा किया, मुस्लिम के घर वालों ने कहा, हम तो कूफा जायेंगे, बदला लेंगे या जान देंगे, इस तरह सफर जारी रहा, आगे एक चश्मे पर हज़रत हुसैन ने पड़ाव किया, उधर इब्ने ज़ियाद ने हज़रत हुर्र को एक हज़ार सवारों के साथ भेजा और लिखा कि हज़रत हुसैन को कूफा जाने से रोक दो।
‘‘हुर्र को ‘‘हज़रत’’ इस लिए लिखा क्योंकि वह बाद में हज़रत हुसैन की तरफ़ से लड़ कर शहीद हुए थे।’’
हुर्र अपनी फौज के साथ हज़रत हुसैन के पड़ाव तक पहुंच गया और हज़रत हुसैन से कहा हमको इब्ने ज़ियाद का हुक्म है कि आप को कूफा न जाने दें, ज़ुह्र का वक़्त हुआ, हज़रत हुसैन ने नमाज़ पढ़ाई, हुर्र के फौजियों ने भी उनके पीछे नमाज़ पढ़ी, हज़रत हुसैन न हज़रत हुर्र और उनके फौजियों को मुख़ातब करके कहा तुम लोगों ने हमको बुलाया है तो हम आये हैं वरना चाहो तो हम वापस जायें सैकड़ों खुतूत सामने रख दिये, जवाब मिला हमने आपको नहीं बुलाया, यह खुतूत हमने नहीं लिखे, हम तो आपको कूफा नहीं जाने देंगे, अब हज़रत हुसैन ने वापसी का इरादा कर लिया मगर हुर्र ने कहा, हम को इब्ने ज़ियाद का हुक्म है कि हम आपको वापस भी न जाने दें, और जिधर चाहें चलें हम आपके साथ चलेंगे, दो मुहर्रम सन् 61 हिज्री को यह काफिला कर्बला पहुंच गया, इब्ने ज़ियाद ने पैग़ाम भेजा, हुसैन रज़ि0 को वहीं रोक दो, हम चार हज़ार फौज तुम्हारी मदद को भेज रहे हैं, अब वहां एक तरफ हज़रत हुसैन रज़ि0 के अहलो अयाल का ख़ेमा था तो दूसरी तरफ़ पाँच हज़ार कूफियों का ख़ेमा था, इब्ने ज़ियाद का मुतालबा था कि हुसैन रज़ि0 हमारे हाथ पर यज़ीद के लिए बैअ़त करें, हज़रत हुसैन रज़ि0 इसके लिए तैयार न थे, आखिरकार हज़रत हुसैन रज़ि0 ने तीन मुतालबे रखे।

  1. हमको हम जहां से आये हैं वहां वापस जाने दिया जाये।
  2. हमको यज़ीद के पास जाने दिया जाये, हम उसके हाथ में हाथ दे कर अपना मुअ़मला हल कर लेंगे।
  3. या हमको किसी सरहद पर जाने दिया जाये।
    मगर इब्ने ज़ियाद अपने मुतालबे पर अड़ा रहा कि हमारे हाथ पर यज़ीद के लिए बैअ़त करें या लड़ें, पाँच हज़ार फौज के साथ 72 क्या लड़ते, 10 मुहर्रम को फौज ने हम्ला करके सबको शहीद कर दिया, हज़रत हुसैन रज़ि0 को भी शहीद कर दिया। इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलाहि राजिऊ़न।
    हज़रत हुसैन रज़ि0 के बेटे हज़रत ज़ैनुल आबिदीन जो लगभग 20 साल के थे, वह अपनी अहलिया शहरबानों और गोद के बच्चे मुहम्मद बाक़िर के साथ क़ाफिले में थे वह बीमार थे, इसलिए वह बच गये, यज़ीद ने उनका बड़ा इकराम किया था सारे हुसैनी उन्हीं की औलाद हैं।
    फिर यह लुटा पिटा क़ाफिला हज़रत हुसैन रज़ि0 के सर के साथ इब्ने ज़ियाद के सामने पहँुचाया गया, इब्ने ज़ियाद ने (उस पर ख़ुदा की लानत हो) हज़रत हुसैन रज़ि0 के सर से बे अदबी की फिर यह लुटा पिटा क़ाफिला दमिश्क़ यज़ीद के सामने पहुँचाया गया, यज़ीद ने ग़म का इज़हार किया और रो दिया और इब्ने ज़ियाद पर लानत भेजी, अब यह क़ाफिला यज़ीद का मेहमान रहा, कितने दिनों मेहमान रहा तारीख में नहीं है, फिर यह क़ाफिला हदाया और तहाइफ के साथ मदीना मुनव्वरा पहुँचा दिया गया। मदीने में उनके घर और जायदादें थीं।