नाकामियाँ और कामयाबियाँ

जिक्रे नबीये पाक सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम
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दादा आदम अलैहि0 और इब्लीसे लईन
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इस संसार में शायद ही कोई इंसान गुज़रा हो जिसको नाकामियों से वास्ता न पड़ा हो, कभी कभी तो नाकामी बड़ी कामयाबी का साधन बन जाती है, किसी उर्दू कवि ने क्या अच्छी बात कही हैः-
सुर्ख़ुरु होता है इंसा ठोकरें खाने के बाद
रंग लाती है हि़ना पत्थर पे पिस जाने के बाद

वह कहता है कि इंसान नाकामी की ठोकरें खाने के बाद कामयाबी की खुशियाँ पाता है, इसके उदाहरण में वह मेंहदी को प्रस्तुत करता है कि पत्तियों से लड़कियों के हाथ लाल नहीं होते, लेकिन जब वही मेंहदी की पत्ती पत्थर पे पिस जाती है और फिर उसको लड़कियाँ अपने हाथों में लगाती हैं तो वही मेंहदी अब लाल हो कर निखर पड़ती है, इसी तरह इंसान नाकामी की ठोकरें खाने के बाद जब संभाला लेता है तो कामयाबी से दो चार होता है।
हम यहां अपने जीवन की असफलताओं का वर्णन न करके केवल सफलताओं का वर्णन करेंगे कहीं कहीं असफलताओं का वर्णन भी आ सकता है।
मैंने मार्च सन् 1948 में प्रथम श्रेणी में मिडिल पास किया, उस वक्त मिडिल में फारसी भी पढ़ाई जाती थी, यद्यपि फारसी की केवल तीन पुस्तकें पढ़ाई जाती थीं, ‘‘आमदनामा, गुलज़ारे दबिस्तां और करीमा’’ लेकिन उस्ताद ने इन किताबों को इस तरह पढ़ाया था कि मैं फारसी में बात चीत कर लेता था, उर्दू बहुत अच्छी थी और अंक गणित में तो मैं प्रसिद्ध था। चक्रवर्ती के ‘‘आला हिसाब’’ बड़ी आसानी से हल करता था, मिडिल पास करने के बाद पिता जी ने मेरी शिक्षा रोक दी, और घर के काम में लगा दिया, जिस पर मुझे भी खेद रहा और साथियों को भी।
खेती के काम में भी अपनी मेहनत से ख्यात प्राप्त किया, 1951 ई0 में पिता जी का देहान्त हो गया, अब मैं अपनी खेती के काम में लग गया परन्तु अनुभव न होने के कारण अनाज बहुत कम पैदा कर पाता, मेरा छोटा भाई क़ियामुद्दीन जवान हो चुका था, उसकी शादी कर दी थी। मेरा वह भाई बहुत नेक था, खेती का काम उसे हवाले करके मैंने एक दीनी मदरसा ‘‘मदरसा व खानक़ाह अबू अहमदिया’’ गुलचप्पा कलाँ जिला बाराबंकी में पढ़ाने का काम शुरु किया, मैं उर्दू और हिसाब पढ़ाता था। पवित्र र्क़ुआन मैंने नहीं पढ़ा था, जिसका मुझे अत्यधिक खेद था, उसी मदरसे में मैंने शाम के वक्तों में र्क़ुआन मजीद पढ़ना और कण्ठस्थ करना शुरु किया, दिन में पढ़ाता और रात में र्क़ुआन याद करता, अब मुझे अत्यधिक आभास होने लगा कि मैं पवित्र र्कुआन समझता क्यों नहीं हूँ, मुझे इसे समझना चाहिए, इसके लिए मैं रात को रो रो कर दुआयें माँगता।
सन् 1960 ई0 में, मैं वह मदरसा छोड़ कर ‘‘ह़ज़रत मौलाना अली मियाँ साहब रह0’’ के इशारे पर नदवे आ गया, और मुझे उम्मीद हुई कि अब यहां अरबी सीखने की और र्कुआन समझने की कोई शक्ल निकल आयेगी, मगर अफसोस यहां भी कोई शक्ल न निकली, मैं दुआयें करता रहा कि अल्लाह तआला मुझे र्कुआन का इल्म दे दे।
मैं नदवे के जूनियर सेक्शन जहाँ मिडिल तक शिक्षा दी जाती थी उसमें दीनियात और अरबी के मज़ामीन भी पढ़ाये जाते थे, उसमें मैं टीचर था, उस विभाग के हेडमास्टर मुहम्मद ह़सन खाँ अर्शी थे, वह मेरे कामों से अत्यधिक प्रसन्न थे, मैं उर्दू फारसी और हिसाब बड़ी कामयाबी के साथ पढ़ाता था उस वक्त उस विभाग में कोई क्लर्क न था, इसलिए आफिस का काम भी मेरे हवाले रहा।
जनाब अर्शी साहब के रिटायर्ड होने के पश्चात मैं हेडमास्टर नियुक्त किया गया, जिसे मैं बहुत अच्छी तरह चलाता रहा, अब मुझे ख़याल हुआ कि मैं केवल मिडिल पास हूँ मुझे इस बड़े इदारे में काम करने के लिए कुछ और सनदें हासिल करना चाहिए, अतएव मैंने सन् 1968 ई0 में प्राइवेट इम्तिहान दे कर हाई स्कूल पास किया, अब मेरी समझ में आया कि मैं और पढ़ सकता हूँ, अतएव दिन में पढ़ाता और रात में अध्ययन करता, इस तरह मैंने इण्टर पास किया, प्रथम श्रेणी में बी0ए0 पास किया, 59 प्रतिशत से उर्दू में एम0ए0 पास किया सन् 1978 ई0 में पी0एच0डी0 की डिग्री भी प्राप्त कर ली, परन्तु अरबी न सीख सकने का मुझे अब तक खेद रहा और मैं दुआएं करता कि ऐ अल्लाह! मुझे पवित्र र्कुआन का इल्म प्रदान कर।
मुझे मालूम हुआ कि सऊदी अरबीया के रियाज़ नगर में एक ऐसी संस्था है जिसमें ग्रेजुएट लोगों को अरबी सिखाई जाती है, मैंने उसमें प्रवेश के लिए अपने हाथ से अंग्रेज़ी में प्रार्थना पत्र लिख कर और उस वक्त के‘‘अल-बअ़सुल-इस्लामी’’ के एडीटर मौलाना सय्यिद मुहम्मद अलह़सनी से सिफारिश लिखवा कर रियाज़ यूनिवर्सिटी को भेज दिया इस लिए कि वह संस्था ‘‘माहदुल-लुग़तुल-अरबिया’’ जो रियाज़ यूनिवर्सिटी के अंडर में थी।
अल्लाह की मरज़ी स्काॅलरशिप के साथ मंज़ूरी आ गयी, मुझे बहुत प्रसन्नता हुई कि अब मैं कुऱ्आन की भाषा अरबी सीख सकूँगा, अल्लाह की मदद से मैं 1979 ई0 के आख़िर में रियाज़ पहुँच गया और दाख़िला ले लिया, यह दो साल का कोर्स था मैंने बड़ी मेहनत से पढ़ा और 95 प्रतिशत से यह कोर्स पास किया। यहाँ मुझे इतनी अरबी तो आ गयी कि मैं बेतकल्लुफ अरबी बोल लेता था और लेटर भी लिख लेता था लेकिन अभी र्कुआन समझने में कठिनाई थी, माहद पास करने के बाद वहां का नियम था कि कहीं और प्रवेश नहीं मिल सकता था लेकिन एक सऊदी दोस्त की सिफारिश और प्रथम श्रेणी में बी0ए0 पास होने के आधार पर मुझे एम0ए0 में दाख़िला मिल गया, वहां उस वक़्त एम0ए0 चार साल का था, एम0ए0 में मुझे तफ़्सीर और हदीस के सब्जेक्ट में दाख़िला मिला, वहां एम0ए0 में मक़ाला लिखना अनिवार्य होता है और उस मक़ाले पर खुले आम तलबा और उस्तादों के बीच मुनाक़शा (विवेचना) होता है, मैंने यह कोर्स बड़ी मेहनत से पढ़ा और 1985 ई0 के आख़िर में मक़ाला प्रस्तुत कर दिया, मुझे वहां कि एम0ए0 की तफ़्सीर व हदीस में डिग्री मिल गयी। अब मैं र्कुआन तो समझने लगा लेकिन र्कुआन के उलूम का जब अध्ययन किया तो मुझे लगा कि यह अथाह समुद्र है आदमी अगर इन उलूम को प्राप्त करनेके लिए सारा जीवन लगा दे तब भी यही लगेगा कि इस ज्ञान में अभी मैं शुरु ही में हूँ। लेकिन अल्लाह का शुक्र है कि जो कुछ सीखा उससे मुझ को शांति प्राप्त हुई। उसी दौरान मैंने दोनों बेटों और एक भाई हाफिज़ मुहम्मद वसीम नदवी और बाज़ दूसरे अ़ज़ीज़ों को वहां के माहदुल लुग़ा में दाख़िल करवा कर दो साला कोर्स पूरा करवाया इस दौरान उन सबको ह़ज करने का भी अवसर मिला।
उस समय वहां एम0ए0 के छात्रों को बीवी का वीज़ा भी दिया जाता था अतएव मैंने अपनी पत्नी का विवाह प्राप्त करके आख़िर के दो साल साथ रखा, इस दौरान मुझे पांच बार ह़ज करने और सात बार उमरे के सफ़र पर जाने का अवसर मिला हर बार मदीना भी जाना हुआ, मेरी पत्नी ने भी दो हज़ किये, उसी दौरान सन् 1982 ई0 में मैंने अपने माता जी को हज़ कराया, निःसंदेह यह वह सफलताएं हैं जो मेरे जीवन की यादगारें हैं।
सन् 1985 ई0 के अंत में मैं अपने देश वापस आ गया और 1987 ई0 से फिर नदवे में पढ़ाने का काम शुरु किया, मैं दारुल उलूम के माहद का हेड मुक़र्रर हुआ 1997 ई0 में रिटायर्ड हो गया लेकिन मुझे काम से हटाया नहीं गया, मुझे हेडमास्टरी से अलग करके ‘‘शोबा तामीर व तरक़्की’’ में मुअ़ाविन ‘‘नाज़िरे शोबा’’ नियुक्त किया गया, अब तक उसी पद पर हूँ, सन् 2001 ई0 में जब ‘‘सच्चा राही’’प्रकाशित हुआ तो मुझे उसका एडिटर बनाया गया यह काम भी अब तक मेरे सिपुर्द है, जब प्रोफेसर अतहर हुसैन को मोतमद माल बनाया गया तो मुझे मुअ़ाविन सिक्रेट्री मजलिसे सह़ाफ़त व नशरियात भी नियुक्त किया गया, इसके सिक्रेट्री प्रोफेसर साहब हैं, यह सारे काम मैं अब तक कर रहा हूँ, अल्लाह मेरी मदद करे, जब तक ज़िन्दा रहूँ इस्लाम पर रहूँ और ईमान पर खात्मा हो।
आमीन