मुह़र्रमुल-हराम

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मुहर्रम महीने का नाम है अल-हराम उसका गुणवाचक शब्द है जिस का अर्थ है सम्मानित अथवा प्रतिष्ठित, दोनों शब्द मिलाने से उसका इम्ला बन गया। मुहर्रमुल हराम अर्थात प्रतिष्ठित अथवा सम्मानित मुह़र्रम, वैसे साधारणतः केवल मुहर्रम बोला जाता है। पवित्र कुऱ्आन में आया है कि साल के 12 महीनें हैं उनमें से चार सम्मानित हैं, हदीस में उन चार महीनों के नाम यह है- मुहर्रम, रजब, ज़ीक़अ़दह और जिलहिज्जा इस शुभ महीने में अल्लाह तआला ने अपने मुख्य बन्दों अर्थात नबियों और रसूलों पर बड़ी प्रमुख कृपाएं की हैं, हजरत आदम अलैहिस्सलाम, हज़रत नूह अलैहिस्सलाम और कई अल्लाह के नबियों और रसूलों पर विशेष कृपाओं का उतारना रिवायतों में मिलता है, सबसे प्रसिद्ध घटना, हज़रत मूसा अलैहिस्सलमा की हैः-
जब प्यारे नबी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के आदेश से मक्का मुकर्रमा से हिज़रत करके मदीना मुनव्वरा गये और वहीं का निवास गृहण कर लिया तो देखा कि यहां के यहूदी 10 मुहर्रम को रोज़ा रखते हैं। यहूदियों से पूछा कि तुम लोग दस मुहर्रम को रोज़ा क्यों रखते हो तो उन्होंने बताया कि इस रोज़ अल्लाह ने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम को समुद्र में मार्ग दे कर उनको फिरअ़ौन के अत्याचार से बचा लिया था और फिरऔन को उसी समुद्र में डुबो दिया था। हम लोग अल्लाह की इस अदभुत कृपा पर जो हमारे नबी हज़रत मूसा पर हुई अल्लाह के शुक्रिये में रोज़ा रखते हैं, प्यारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया हमारा हज़रत मूसा अलै0 पर यहूदियों से ज़ियादा हक़ है, हम भी इस रोज़ रोज़ा रखेंगे, अतएव प्यारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने स्वयं दस मुहर्रम को रोज़ा रखा और सहाबा को भी उस रोज़ रोज़ा रखने का आदेश दिया। अतएव सहाबा दस मुहर्रम को बड़े एहतिमाम से रोज़ा रखते थे और अपने बच्चों से भी रखवाते थे।
दस मुहर्रम को आशूरा का दिन कहलाता है बाज़ रिवायात से मालूम होता है कि हिजरत से पहले भी कुरैश इस दिन रोज़ा रखते थे। बाज़ रिवायात से ज्ञात होता है कि रमज़ान के रोज़े फर्ज़ होने से पहले आशूरा का रोज़ा फर्ज़ था जब रमज़ान के रोज़े फर्ज़ हुए तो आशूरा का रोज़ा सुन्नत हो गया।
प्यारे नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आपके सहाबा केवल दस मुहर्रम का एक रोज़ा रखते थे, कि एक बार अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया हम यहूद के रोज़ों से अन्तर करने के लिए दस के साथ नौ या ग्यारह का रोज़ा मिला कर रखा करेंगे, परन्तु यह फरमाने के पश्चात आप को अगला मुहर्रम न मिल सका लेकिन सहाबा ने उस पर अमल आरम्भ कर दिया और दस मुहर्रम के साथ एक दिन मिला कर रोज़ा रखने लगे, और इसी आधार पर उलमा ने केवल दस मुहर्रम का रोज़ा रखने को मकरूह कहा अतः तमाम मुसलामन इस पर अमल करने वाले अर्थात दस के साथ नौ या ग्यारह को मिला कर रोज़ा रखने लगे।
लेकिन अब इक्सीस्वीं सदी में उलमा का कहना है कि नौ या ग्यारह मुहर्रम का रोज़ा यहूद की मुखालफत के लिए बढ़ाया गया था परन्तु अब तो यहूद न तो दस मुहर्रम का रोज़ा रखते हैं और न ही उनके कलेण्डर में मुहर्रम महीने का उल्लेख है अतः अब केवल दस मुहर्रम को रोज़ा रखना मकरूह न रहा, हम मुसलमानों को चाहिए कि दस मुहर्रम का मस्नून रोजा रख कर सवाब हासिल करें और कोशिश करें कि उसके साथ एक दिन और मिला कर दो रोज़ों का सवाब हासिल करें।
बाज़ ज़ईफ रिवायतों से आशूरा के दिन अपने घर वालों पर अच्छे खाने पीने का प्रबन्ध करने पर सवाब बताया है परन्तु उन रिवायतों का कमज़ोर होना इस से और स्पष्ट हो जाता है कि जब उस दिन रोज़ा रखना सुन्नत है तो खाने की वुसअ़त का क्या मतलब होगा? अलबत्ता आशूरा की रात सहरी का अच्छा प्रबन्ध कर के सवाब लिया जा सकता है।
मुहर्रम के महीने का सम्मान इस से भी सिद्ध होता है कि यह हिजरी कैलेण्डर का पहला महीना है। बहर हाल मुह़र्रम बड़ा ही प्रतिष्ठित तथा सम्मानित महीना है बड़ा शुभ महीना है परन्तु कुछ लोग इसे गम (शोक) का महीना कहते हैं यह उनकी बड़ी भूल है। बेशक इस महीने की पहली तारीख को दूसरे खलीफ़ा हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हू की वफात हुई थी उनको मरदूद अबू लूलू ने 27 ज़िल्हिज्जा को विषैली कटार से घायल किया था और पहली मुहर्रम को वफात हुई वह शहीद हुए। बेशक दस मुहर्रम को करबला की खूनी घटना घटी और हमारे सरदार प्यारे नबी सल्ल0 के प्रिय नवासे हज़रत हुसैन रज़ि0 उनके भाई भतीजे, बेटे घर के 17 लोग और उनके जांनिसारों को उनकी आँखों के सामने शहीद किया गया फिर उनको भी शहीद किया गया। इन्नालिल्लाहि व इन्ना इलैहि राज़िऊन। बेशक बड़े शोक तथा दुख की बात है। हम उन शुहदा को ईसाले सवाब करते हैं उनके बड़े दर्जे हैं परन्तु किसी की शहादत या मौत दुखद घटना से कोई दिन या महीना शोक का महीना नहीं हो जाता। किसी की मौत या शहादत पर उसके अज़ीज़ों को तीन दिन ही शोक मनाने की अनुमति है, मरने वाली की बीवी चार महीने दस दिन शोक मनायेगी उसके पश्चात प्राकृतिक दुख पर तो कोई रोक नहीं परन्तु शोक मनाने की शरीअत में गुंजाइश नहीं।
इस उम्मत के लिए सबसे बड़े शोक का दिन अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से जुदाई का दिन है और वह है 12 रबीउल अव्वल तो हम इस रबीउल अव्वल के महीने को शोक का महीना नहीं कहते हैं न उसकी 12 तारीख को न दोशंबा दिन को, फिर हम मुहर्रम के महीने को गम का महीना क्यों कहें? यह हमारी बड़ी भूल है।
इस्लाम में पहली शहादत हज़रत सुमय्या की शहादत के दिन और महीने को कोई जानता भी नहीं, बिअ़रे मऊ़ना के 69 शहीदों की शहादत पर प्यारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को बड़ा दुखः हुआ, हज़रत जै़द बिन दस्ना की शहादत पर आपको ग़म हुआ, बद्र की लड़ाई में कितने लोग शहीद हुए, उहुद की लड़ाई में प्यारे नबी के प्यारे चचा हज़रत हम्जा रज़ि0 शहीद हुए, क्या जिस दिन या महीने में इन हज़रात की शहादत हुई क्या प्यारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उन दिनों और महीनों को शोक का दिन या शोक का महीना मनाने का कोई संकेत दिया हरगिज़ नहीं। फिर क्या हज़रत उमर, हज़रत उस्मान, हज़रत अली रज़ि0 की शहादतों पर सहा-बए- किराम ने शोक का दिन या शोक का महीना मनाया? हरगिज़ नहीं तो फिर करबला के हादिसे पर अ़ाशूरा के दिन या मुहर्रम के महीने को शोक का दिन या शोक का महीना मानना और उसमें शोक मनाना नौहा पढ़ना या मातम करना, ताज़िया रखना, कैसे सहीह हो सकता है। इसीलिए उलमा ने ताज़ियादारी और नौहा ख़्वानी तथा मातम को हराम लिखा है। हमारे शीअ़ा भाईयों की शरीअ़त अलग है उनको देख कर हम सुन्नी भाईयों को इन ग़लत और हराम कामों में न पड़ना चाहिए। बेशक वह बड़ा जालिम या जिसने हमारे सरदार हज़रत हुसैन रज़ि0 और उनके खानदान वालों को क़त्ल का आदेश दिया और उससे ज़ियादा जालिम वह लोग थे जिन्होंने हज़रत हुसैन रज़ि0 पर तीर व तलवार चलाए उनको और उनके साथियों को क़त्ल किया बेशक वह सारे मक्तूल शहीद हैं, जन्नत में हैं और उनके क़ातिल ज़ालिम सिज्जीन में अज़ाब भुगत रहे हैं और जहन्नम उनकी प्रतीक्षा में है।
सय्यिदुना हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु और करबला की दुखद घटना से सम्बन्धित मैंने कुछ चैपाइयाँ कहीं हैं। जो प्रिय पाठकों के अवलोकन हेतु प्रस्तुत है-

सह़ाबिये रसूल ह़ुसैन, नवा-सए-रसूल हुसैन
चश्मे अ़ली के नूर हुसैन, लख़्ते जिगरे बतूल हुसैन
यज़ीदी लश्कर न झुका सका हुसैन को
मरहबा कहा शहादत को, उम्मत में हैं मक़बूल हुसैन
जाएं यज़ीद के पास हुसैन ने चाहा था
जाएं मक्का या कहीं और हुसैन ने चाहा था
न मानी कोई बात इब्ने ज़ियाद ने उनकी
वरना दब जाए यह फितना हुसैन ने चाहा था।
बड़े शक़ी थे क़त्ल किया जिन्होंने ह़ुसैन को
दोज़ख़ी हो गये जिन्होंने क़त्ल किया ह़ुसैन को
न सोचा ह़ुसैन आल हैं किसकी
कैसे हिम्मत की और क़त्ल किया हुसैन को
शहीद ज़िन्दा हैं अपने रब की जन्नत में
ह़ुसैन ज़िन्दा हैं अपने रब की जन्नत में
न कहो मुर्दा उन्हें ये रब ने है फरमाया
रिज़्क़ पाते हैं रब से अपने रब की जन्नत में
क़ुरआन कहता है शहीद ज़िन्दा हैं
ह़दीस कहती है शहीद ज़िन्दा हैं
हम भी कहते हैं शहीद ज़िन्दा हैं
शहीद मुर्दा नहीं शहीद ज़िन्दा हैं
सल्लल्लाहु अ़लन्नबिय्यि व अ़ला आलिही व
अस्हाबिही व शुहदाइही व उम्मतिही व बारक व सल्लम।